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    ये खित्तै -ए -आज़मगढ़ है मगर फैज़ान ऐ तजल्ली है अक्सर ,जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है....- इकबाल सुहैल


    "ये  खित्तै -ए -आज़मगढ़ है मगर फैज़ान ऐ तजल्ली है अक्सर ,जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है...."- इकबाल सुहैल
    ऐतिहासिक एवं पौराणिक दृष्टि से आजमगढ़ की काफी महत्ता है। जब समूचा भारत अंग्रेजी हुकुमत में जकड़ा सिसकियां ले रहा था तो मां भारती के अमर नौनिहालों ने तीन जून 1857 को आजादी का झंडा लहराकर शहर के शासन सत्ता की बागडोर अपने हाथ में थाम ली थी। इसी जिलेमें दुर्वासा, दत्तात्रेय व चन्द्रमा ऋषि की तपोस्थलियां, मां पाल्हमेश्वरी धाम एवं महाराज जन्मेजय की सर्पयज्ञ स्थली अवन्तिकापुरी भी स्थित है। आजमगढ़ की साहित्यिक विरासत ने अगर देश व समाज को रोशन किया है तो समूचे विश्व को चलने का रास्ता दिखलाया है। ऐतिहासिक आइने में आजमगढ़ का अक्श देखने के लिये 15वीं सदी में चन्द्रसेन सिंह नाम के एक राजपूत थे। उनके दो पुत्र सागर सिंह एवं अभिमन्यु सिंह हुए। अभिमन्यु सिंह मुगल सेना में सिपाही हो गये। उनके प्रतिभा एवं योग्यता की चर्चा सम्राट जहांगीर के दरबार दिल्ली तक पहुंची उन्हीं दिनों जौनपुर के पूर्वी क्षेत्रों में कई विद्रोह हुये। उन विद्रोहों पर काबू पाने के लिये सम्राट ने अभिमन्यु सिंह को लगाया। इसी बीच अभिमन्यु सिंह सम्राट के प्रेम से प्रभावित होकर इस्लाम धर्म ग्रहण कर दौलत खां हो गये। सम्राट ने जौनपुर के पूर्वी भाग के 22 परगने पुरस्कार के रूप में देते हुये उन्हें जागीरदार बनाया और 1500 घुड़सवारों का सालार बनाकर मेंहनगर राज्य में भेजा। दौलत खां शाहजहां के शासनकाल में एक सम्मानित सिपहसालार थे, पर उनकी मृत्यु कब और कैसे हुई, इसका इतिहास में कुछ पता नहीं है। वह निःसंतान रहे, जिसके कारण उन्होंने अपने भतीजे हरिबंश सिंह गौतम (सागर सिंह के बड़े पुत्र) को गोद ले लिया था। जो कि अपने चाचा दौलत खां (अभिमन्यु ंिसंह ) से प्रभावित होकर तथा जागीर एवं पद के लालच में मुसलमान हो गये। परिणामस्वरूप सन् 1629 में हरिबंश सिंह को दौलत खां की जागीर तो मिली ही राजाकी पदवी भी मिल गयी। उन्होंने मेंहनगर को अपने राज्य की राजधानी बनायी। इनके दो बेटे गंभीर सिंह व धरनीधर सिं रहे। हरिबंश सिंह ने तो इस्लाम स्वीकार कर लिया परन्तु उनकी धर्मभीरू रानी रत्नज्योति कुंवर उनसे अलग होकर रहने लगी। रानी रत्नज्योति कुंवर ने सनातन धर्म को नहीं छोड़ा।


    स्वाभिमानी एवं वीरांगना होने के नाते पति से अलग रहते हुये हरिबंशपुर कोट से मंेहनगर जाने वाले रास्ते में आठ किमी दूर सेठवल ग्राम रानी रत्नज्योति कुंवर को सुन्दर व प्रिय लगा। रानी ने यहीं पर 52 एकड़ भूमि राजा से मांग लिया और यहां सन् 1629 में पोखरा, हनुमान मंदिर, कुआ एवं सराय तथा सराय के पीछे एक कुआ पानी पीने के लिये बनवाया। उपरोक्त सराय पर आजादी के बाद सन् 1952 में नजूल भूमि यानी रानी का कोई वारिस न होने के कारण शासन द्वारा यह भूमि जिला पंचायत आजमगढ़ को स्थानान्तरित कर दी गयी।

    गंभीर सिंह, राजा हरिबंश सिंह एवं रानी रत्नज्योति कुंवर के बड़े पुत्र थे। हरिबंश सिंह की मृत्यु के बाद वहीं मेंहनगर के राजा बने। गंभीर सिंह के तीन पुत्र विक्रमाजीत ंिसह, रूद्र ंिसंह व नारायण सिंह थे। विक्रमाजीत सिंह अपने पिता गंभीर सिंह की मृत्यु के बाद राजा बने राजपाट के चक्कर में उन्होंने अपने छोटे भाई की हत्या करवा दी। रूद्र सिंह की विधवा रानी भवानी कुंवर ने न्याय पाने के लिये औरंगजेब के दिल्ली राजदरबार में फरियाद की। रानी भवानी कुंवर के फरियाद पर विक्रमाजीत को दिल्ली बुलाकर कारागार में डाल दिया गया। इस्लाम धर्म ग्रहण करने की शर्त पर उन्हें मुक्त किया गया। मुसलमान बन जाने के कारण उनकी हिन्दू पत्नी ने उनसे नाता तोड़ दिया। बाद में उन्होंने इस्लाम धर्म ग्रहण कर चुके चन्देल राजा की पुत्री से विवाह किया। इस मुस्लिम रानी से दो पुत्र आजम खां व अजमत खां हुये। बाद में विक्रमाजीत एवं सम्राट औरंगजेब में ठन गयी। औरंगजेब ने सेना भेजकर सम्राट विक्रमाजीत को मरवा डाला। सन् 1650 में  विक्रमाजीत के छोटे भाई रूद्र सिंह की विधवा रानी भवानी कुंवर की भी मृत्यु हो गयी। सन् 1665 से पहले आजमगढ़ मेंहनगर राज्य में पड़ता था।

    सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में मेंहनगर राज्य दो भागों में बंटा। पश्चिमी भाग आजम खां को मिला। उन्होंने सन् 1665 में आजमगढ़ शहर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाये। आजम खां की युद्ध कला से प्रभावित होकर औरंगजेब ने जयपुर के राजा जय सिंह के साथ दक्षिण में शिवाजी से संधि करने के लिये भेजा। शिवाजी का दिल्ली में अपमान होने पर राजा आजम खां सम्राट के विद्रोही हो गये। अन्ततः सम्राट औरंगजेब ने उन्हें मरवा दिया। अजमत खां ने भी औरंगजेब के विरूद्ध बगावत का झंडा बुलन्द किया। सम्राट औरंगजेब ने अजमत खां को सबक सिखाने की नियत से इलाहाबाद के सूबेदार हिम्मत खां के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। आजमगढ़ के बडे पुल के पास दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में अजमत खां पराजित हुए। अजमत खां के चार पुत्र एकराम खां, मुहब्बत खंां, नौबत खांा व सरदार हुये। दोहरीघाट के पास घाटरा नदी में छलांग लगायी। चारो पुत्र तो नदी के उस पार पहंुच गये परन्तु अजमत खां की नदी में डूबने  से मृत्यु हो गयी। अजमत खां की मृत्यु के बाद उनके बडे़ पुत्र एकराम खां राजा बने। उन्होंने अपनी सेना को मजबूत किया तथा खुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासनकाल में वाराणसी व गाजीपुर जिले के कुछ हिस्से काटकर 18 सितम्बर 1832 को आजमगढ़ को जिले का दर्जा प्रदान किया गया। 

    सन् 1857 के गदर से आजमगढ़ अछूता न हीं रहा। कुवर सिंह आरा जिले के साहाबाद के शासक थे। अंग्रेजी हुकूमत ने उनका शासन सत्ता छीन लिया। उन्होंने अग्रंजी हुकूतमत के खिलाफ बगावत छेड़ दिया। जगह-जगह क्रातिकारियों को एकजुट करते हुये वह आजमगढ़ के लिये चले। इसके पहले ही यहां के क्रांतिकारियों ने कई प्रमुख अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारते हुये तीन जून 1857 को आजमगढ़ शहर सहित यहां के सभी कार्यालयों पर अपना कब्जा जमा लिया। आजमगढ़  में हर जगह स्वतंत्रता का झंडा लहराने लगा। सन् 1857 में करीब तीन महीने तक आजमगढ़ अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त रहा। इस दौरान कई लड़ाईयां भी हुइ। कप्तानगंज के पास भीलमपुर छपरा गांव पूरी तरह से क्रांति का अलख जगा चुका था। अंग्रेजी फौज ने पूरे गांव को घेर लिया। गांव के तमाम लोग तो अंग्रेजी हुकूमत के आगे नतमस्तक हो गये मगर चार राजपूत रणबाकुरों ने हरिनाम सिंह के नेतृत्व में मोर्चा संभाल लिया। गांव के बाग में लड़ाई शुरू हुई। अंग्रेजी फौज के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतारते हुये ये चारो रणबांकुरे शहीद हो गये। गांव के इस बाग में प्रतिवर्ष शहीद मेला भी लगता है। आजमगढ़ पहुंचने के बाद कुंवर ंिसह ने क्रांतिकारियों की विशाल सेना को कई टुकडि़यों में बांट दिया। एक टुकड़ी अजमतगढ़ पहुंची। 

    अजमतगढ़ में भूखे-प्यासे क्रांतिकारियों ने रईस भाईयों गोगा साव व भीखा साव से मदद मांगी। गोवा साव, भीखा सााव के खांड़सारी के सात कारखानों के साथ-साथ लम्बा चौड़ा व्यवसाय था। उन्होंने तत्काल कई कुंओं में कई बोरे चीनी डलवा दिये। सारे कुंओं का पानी ही शर्बत हो गया। सभी क्रांतिकाराी अपनी प्यास बुझाये। दोनों भाईयों ने क्रांतिकारियों की इस टुकड़ी को राशन व धन भी दिया। इसी क्षेत्र के छपरा सुल्तानपुर गांव के रहने वाले वंशी सेठ एवं कवल सिंह ने अंग्रेजों से इसकी मुखबिरी कर ली। अंग्रेजी फौज ने इनके घर को घेर लिया। यह दोनों भाइ तो पकड़ लिये गये मगर इनके विश्वसनीय मंुशी भैरो प्रसाद ने पूरे परिवार को किसी तरह से निकालकर भगा दिया। 16 सितम्बर 1858 को गोगा साव स भीखा साव को काला पानी की सजा दे दी गयी। आजमगढ़ की पौराणिक गाथा की काफी समृद्ध है। अत्रि मुनि एवं सती अनुसुईया के तीनों पुत्रोें ऋषि दुर्वासा, दत्तात्रेय एवं चन्द्रमा मुनि की तपोस्थलियां इसी जिले में है। तीनों भाईयों ने अपने पिता व मां की आज्ञा से इसी जिले के तमसा नदी के पावन तट पर यज्ञ किया। 

    हयी नहीं महाराज परीक्षित की सर्प  दंश से हुई मृत्यु के बाद उनके पुत्र महाराजा जन्मेजय ने इसी जिले के अवन्तिकाुपरी मे सर्प यज्ञ किया। सर्पयज्ञ के लिये बनाया गया हवनकुण्ड आज भी विशाल सरोवर के रूप में मौजूद है। भगवान भोले शंकर के मना करने  के बावजूद उनकी पत्नी सती जब अपने पिता के धार्मिक आयोजन में भाग लेने पहुंची तो उपेक्षा होने पर हवन कुण्ड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। वह स्थान आजमगढ़ में ही है। जिसे आज भैरोधाम के नाम से जाना जाता है। गुस्साये भोले शंकर जब सती का शव लेकर ब्राह्माण्ड का चक्कर काट रहे थे तो पैर का कुछ हिस्सा इस जिले के पल्हना में गिरा। उस स्थान को आज पवित्र पाल्हमेश्वरी धाम के नाम से जाना जाता है। 

    साहित्यिक दृष्टि से आजमगढ़ हमेशा समृद्ध रहा है। यहां की माटी में जन्में महापंडित राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय हरिऔध, कैफी आजमी, श्यामनारायण पाण्डेय गुरू भक्त सिंह भक्त, शैदा सरीखे लोग किसी परिचय के मोहताज नहीं है। 

    अल्लामा शिब्ली नोमानी में तो देश भक्ति का अजीबोगरीब जज्बा था। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्य थे मगर जब इस विश्वविद्यालय के मुस्लिम शब्द जोड़ा जाने लगा तो वह विरोध कर गये। उन्होंने इस विश्वविद्यालय से पूरी तरह से अपना नाता तोड़ लिया और आजमगढ़ आंकर नेशनल कालेज की आधार शिला रखे। उनकी मृत्यु के बाद यहां के लोगों ने इस कालेज में शिब्ली जोड़ दिया और कालेज का नाम शिब्ली नेशनल कालेज हो गया। यहां के लाइब्रेरी शिब्ली एकेडमी को आज एशिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी के रूप में जाना जाता है। यहां पर तमाम दुर्लभ पुस्तकें व पाण्डुलिपिंया है।

    आज भी यहां होनहारों की कमी नहीं है। इस जिले के मनोज यादव ने क्रिकेट विश्वकप के लिये दे घुमा के गीत लिखकर एक बार फिर जहां विश्व में राष्ट्रीय स्तर पर खुद को स्थापित करके जिले को गौरवान्वित किया है।

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