हकीकत: हमारे देश के नेताओं और वोटरों की दास्तां
वैधानिक चेतावनी: मेरे प्रिय पाठकों आगे जो कहानी मैं आपके बीच शेयर कर रहा हूं यह एक अनुभव के फलस्वरूप है लेकिन इसका उद्देश्य कतई किसी पार्टी नेता धर्म या समुदाय का विरोध नहीं है अगर ऐसा होता पाया जाता है तो इसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा , यह बात मैं पहले ही साफ कर देना चाहता हूं , क्योंकि यह एक काल्पनिक कहानी है लेकिन आप इसमें हकीकत का एहसास करेंगे इसलिए आपसे निवेदन है कि इस कहानी को पूरा पढ़ें और अपने सुझाव देना ना भूलें अगर आपको यह हकीकत लगती हैं तो आप अपने मित्रों के साथ बेहिचक इस कहानी को शेयर कर सकते हैं, तो आइए शुरू करते हैं-
गप्पू, पप्पू और उनके सपोर्टर की चुनावी दास्तां:
एक न्यूज पर गप्पू के
देवलोक की चुनावी यात्रा पर रिपोर्ट आ रही थी। गप्पू
का भाषण चल रहा है , रिपोर्टर ने सभा में आये, हाथ
में गप्पू के पार्टी का रंगीन झंडा और सर पर टोपी (गांधी टोपी नहीं) वाले एक युवक से पूछा -
'कब से गप्पू के पार्टी का समर्थन कर रहे हैं ?"
युवक ने कहा '३ घंटे से' (मुझे इसपर हंसी आई- '३
घंटे से' ? )
रिपोर्टर ने दुसरा सवाल दाग दिया, क्या किया है गप्पू जी ने आपके लिये?
युवक - "बहुत कुछ किया है "
क्या 'बहुत कुछ किया है?'
युवक - 'सबकुछ किया है'
रिपोर्टर सवाल दागे जा रहा था , नौकरी दिया ,
रोजगार दिया ?
युवक -'पढ़े लिखे ही नहीं हैं तो नौकरी कैसे मिलेगा!
(इस उत्तर को सुनकर मैं गंभीर हो गया )
रिपोर्टर -केउँ नहीं पढ़े ?
इस युवक को सवालों के दलदल में फंसते
देखकर पास खड़ी एक लड़की (फिर से हाथ में गप्पू के पार्टी
का झंडा और सर पर टोपी)ने माइक अपनी और
मोड़कर प्रश्नो के जवाब देने की जिम्मेवारी लेती है,
कहती है.
युवती - "क्या पूछ रहे हैं ? अंकल? गप्पू जी ने
क्या नहीं किया है ? बात करतें हैं !
रिपोर्टर महोदय ने इसके आगे सवाल न
पूछना ही बेहतर समझा।
गप्पू का काफिला अगली सभा के लिए रवाना हो चला ,
रास्ते में गप्पू एक समोसे की दूकान पर रुकते हैं , गुड
वाली जलेबी खा रहे है , यहाँ एक और अजूबा हुआ।
समोसे की दुकान पर एक यूवक पहले से ही मौजूद
अपने हाथ में पप्पू की पार्टी का झंडा लिए खड़ा था , गप्पू के
आते देख वो झंडे को मोड़कर अपनी मुट्ठी में छुपाते
हुए गप्पू के पास जाता है , हैंडशेक , नमस्कार के
बाद तस्वीर के लिए गप्पू के बगल में खड़ा होता है ,
अपने सेल फ़ोन से शेल्फी भी ले रहा है. गप्पू यहाँ से
चल पड़ते हैं अपनी अगली शभा के लिए.
ये दोनों ही छोटी घटनाये मुझे कुछ सोचने पर विवश
कर दीं , वह गप्पू की पार्टी के युवक और युवती कितने
निःशब्द थे ? कितने मजबूर, अपनी उपलब्धि या विफलता को भी व्यक्त करने
की छमता नहीं थी उनमे, शायद उतना ही निःशब्द,
जितना हमारे लोकतंत्र की पवित्र आत्मा, इस
भ्रष्टतंत्र के जाल में दम घुट रही है, या घुटन
की शिकार और भ्रष्टतंत्र की गुलाम हो चली है।
तरस उस पप्पू की पार्टी का झंडा लिए युवक पर भी आती है ,
जो राम सलाम तो ठीक , पर अपने नेता से सवाल
पूछने की जगह उनके साथ फोटो खिचवाना और
शेल्फी लेना ज्यादा बेहतर और जरुरी समझा, निश्चित
रूप से यह पप्पू के पार्टी का झंडा लिए युवक
भी उसी सूडो लोकतान्त्रिक निःशब्दता का शिकार है।
नेताओं की सुनो तो ये आजकल एम्पावरमेंट की बात
करतें हैं , देख लीजिये यही है एम्पावरमेंट !
हां निःशब्द एम्पावरमेंट!
विचार आ रहे हैं , भारत में लोकतंत्र
को अभी लम्बी यात्रा तय करना बाकी है ,
हमारी अभिव्यक्ति जबतक निःशब्दता के जकड़न
या पिंजड़े में कैद हैं, हम अपनी हक़ की लड़ाई नहीं लड़
सकते, और न ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन।
लोकतंत्र की निःशब्द आत्मा को सोने के पिंजड़े से
निकल कर खुले आशमां में उड़ान भरना होगा, निःशब्द
और मजबूर आदमीं में शब्द पिरोने होंगे, और जब ये
होगा, तभी हमारे देश में लोकतंत्र की किलकारी सुनाई
पड़ेगी।
आभार प्रकाश के साथ,
आपका अपना संतोष कुमार यादव
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